आज हम न अपना कपड़ा बुनते, न अपना घर बांधते हैं | हम न अपने बरतन मिट्टी से बना सकते हैं, नहि अपने आंगन में जरूरत हो उतनी सब्जी उगा सकते हैं | अपना घर का खाना तक कईयों का पेट नहीं भरता | अपने आपको बाजार पर निर्भर करते हुए हम तो केवल शिक्षा ही नहीं दीक्षा भी बाजार से ही लेते आये हैं | एक एक उपयोग, हमारी हथेली पर या पांवतले बने रहे संसाधन का छूटता जाता है हमसे रिश्ता तो हमारा उससे रिश्ता भी टूटता जाता है | महिम, लालयती इति महिला...... जो मिट्टी से खेलती है, वह महिला; इस परिभाषा का दायरा बदलते हुए स्त्रीत्व का आधार लेकर संसाधनों को लीलया अपने कब्जे में नहीं, अपने शरीर पर मिट्टी का लेप हो वैसे अपनी जरूरतपूर्ति में उपयोग में लेना ही हम भूलते जाते हैं | हमें नहीं दिखाई देता वर्षाकाल में प्रकृति के बहते दातृत्व का प्रतीक बनकर, आंगन में या छत पर टपकते हुए बिनधास्त दूर बहता चला जाता पानी..... जिसे बस धरती के तलागार में संजोगने का काम तक हम नहीं करते ! हम आधुनिकता के ही फंदे में पेव्हर्स से ढाक देते हैं उसे ! हम नहीं लेते उर्जा महिनों तक बरसती हुई ! बस त्रस्त होते हैं हम, इन सब दानधर्मी प्राकृतिक उपलब्धियों से | आज नहीं तो कल ये हम पर कहर ढोते हैं, सूखा - बाढ़ से जलवायु परिवर्तन तक का ! हमारे अपनी यह संपदा, दूसरो के कब्जे में जाती है, हम ही मौका देते हैं उसके लिए – जैसे बंजर पड़ी रही जमीन पर कोई अतिक्रमण करके अपना मकान खड़ा करे और हम चिल्लाते रहे !इस स्थिति को समझने के लिए जरूरी है, समझना आदि-वासीयों का इतिहास और वर्तमान ! सतपुड़ा और विन्ध्य की घाटीयों में मैंने देखा किसतरह अपना घर, अपनी बांबू की दीवारे याने ताटी, अपने कवेलू, अपनी दोरी भी आंजण के पेड़ से बनी, आपनी झाड़ू, अपनी मिट्टी के बरतन, अपने खाट – कपाट – फर्नीचर....... और अपने देसी बीज से देसी अनाज भी वे खुद बनाते, उगाते, बांधते, निर्मिते रहे ! नमक भी, अपनी भिंडी बेचकर लाते थे ..... चाय के लिए भी होती थी सादडा की छाल, और चाय की तो वैसी आदत ही नहीं थी | उनकी जड़ी बूटी जंगल से ही नहीं, खेत की मेढ से भी मिलती थी | पर इसे कहा जाता था पिछड़ापन !यह स्वावलंबन कम अधिक टूटता गया | कही गांव का मुखिया का सम्मान कम हुआ तो बाजार के साथ जिन्हें वे ही “बाजायिया” कहते थे, (जब हम पहले पहुंचे वहाँ, तब हमें भी) उनका सम्मान बढ़ता गया | फाँरेस्ट गार्ड, पटवारी, कभी कभार आकर दर्शन देते और लूट लेते – पहले कुकड़ा, घी ले जाकर और बाद में बढ़ते गये पैसे ! तो गांव का एका, गांव की निर्णय प्रक्रिया और गांव का स्व – राज जैसे कम महत्व का होता गया, वैसे बाहरी ताकते, न केवल रास्ते, घुसती गयी | पेड़ तोड़ने भी सीखाती गयी और मछली बेचने भी ! अब दूरदराज के निर्णय से बनते गये बांधो ने तो और ही करामत कर दी | बाजार में आदिवासीयों ने लड़लड़ कर, लड़ लड़कर अपना जो कुछ खोया उसकी भरपाई कर ली और वे पहाड़ से उतरकर आये, मैदान में, मजबूरी से ! आज उनके टुकड़े – टुकड़े हो गये लेकिन बाजार उनको छूता ही नहीं, घेरता गया तो भी वे भी बदल गये ! उनके घर में आयी बाजार की वस्तुएँ पर खेतउपज भी ‘बी टी’ की, याने अजैविक बन गया तो पूरे जीवन में हुई अजैविकता की घुसपैठ, विविधता की जगह !आज फिर भी आदिवासीयों ने कुछ बचाया है ..... अब उनके बाहरी या बाजारी होते जा रहे बच्चों का भविष्य कौन जान सकेगा ? लेकिन हमारा ? हमारा भविष्य का क्षितिज तो बहुत दूर है | वर्तमान में, हमें अगर कोरोना व्हायरस ने बाजार से तोड़ देकर हाउसअरेस्ट में रखा है तो सालों से बारबार कर्फ्यू भुगतने वाले कश्मीर की तरह हम भी क्या केवल राह देखते रहेंगे, कर्फ्यू खुलने की ? हम व्यक्तिगत और गांव, गली या सोसायटी के स्तर पर भी कुछ उठा ही सकते हैं चार कदम ! ग्रामीण और शहरी दोनों चले अपनी अपनी राह !बाजार से ही खरीदी नहीं केवल इर्दगिर्द में पड़ी बंजर भूमि पर पेड़ लगाने से लेकर हमारे घर की हर चीज जो स्टोअर में पड़ी हो, उसे निकालकर संसाधन मानकर ठीक करे, साफ़ करे उपयोग में ले ले | उसी में उभर आएगी हमारी कम अधिक कुशलता | कोई पढ़ा लिखा इंजिनीयर झटकेगा धूल अपने अपने ज्ञान कटोरे पर की ! रंग लगाने के लिए भी तो बाजार में जाना पड़ेगा पर योजना हो तो कर्फ्यू खुलते ही ला सकें तो चार दिन के चौदह घंटे खुलते रहेंगे रंग, हमारी बेरंगी जिंदगी में | और कपड़े को प्राकृतिक रंग देने के लिए तो कई प्रकार की पूंजी मिलेगी इर्दगिर्द में | हां, एकेक कुशल कारीगर आज के आधुनिक और बाजारी भी माध्यमों से पाक कलाकृति जैसे किसी एक कला और कारीगिरी का दर्शन, व्हिडियो क्लिप से भी डालते जाए तो हजारों या लाखों उसे अपना सकते हैं जिसमें कम पूंजी (प्राकृतिक और हो सकता है, पैसे की भी.....) लगे ऐसे ! कम से कम हम भी सीख तो सकते हैं – अपने बाल बच्चों के भी साथ | शालाएँ बंद है तो क्या हुआ, शिक्षा को तो कोई रोक नहीं सकता !गांव की बात तो क्या कहे ? वहाँ तो खजाना भरा हुआ है , कुछ खाली हो तो भी ! एकता बनाने के लिए हर गांव को कोई नहीं रोक सकता | भले दूर दूर बैठे, कोरोना के डर से लेकिन दिल तो नजदीक लाये | एक मुहल्ले के युवा दूसरे मुहल्ले में जाएं – जाति तोड़ो अभियान चलाएं | वहाँ बेरोजगार पड़े मजदूरों की कोई किसान अपने भंडार से भूख मिटा दे और श्रमिक अपनी श्रम और कुशलता का योगदान दे | यह मजदूरी की भावना से नहीं, प्यार से हो और जातपात भूलकर घर – चूल्हे तक हो तो नयापन होगा | अपने ही गांव से शुरू करें, इक्के दुक्के को आने जाने में, भीड़ के बिना क्या दिक्कत होगी और क्यों ?